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KABIR SAHEB DOHE

(1)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
(2)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(3)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार देमन का मनका फेर ॥
(4)
तिनका कबहुँ ना निंदयेजो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥
(5)
गुरु गोविंद दोनों खड़ेकाके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनोगोविंद दियो मिलाय ॥
(6)
सुख मे सुमिरन ना कियादु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास कीकौन सुने फरियाद ॥
(7)
साईं इतना दीजियेजा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँसाधु ना भूखा जाय ॥
(8)
धीरे-धीरे रे मनाधीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ाॠतु आए फल होय ॥
(9)
कबीरा ते नर अँध हैगुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर हैगुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(10)
माया मरी न मन मरामर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरीकह गए दास कबीर ॥
(11)
रात गंवाई सोय केदिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल थाकोड़ी बदले जाय ॥
(12)
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
(13)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(14)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
(15)
तिनका कबहुँ ना निंदियेजो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥ 
(16)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(17)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
(18)
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
(19)
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
(20)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार देंमन का मनका फेर ॥

(21)
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
(22)
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

(23)
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
(24)
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 

(25)
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
(26)
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । 
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥
(27)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(28)
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 

(29)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 

(30)
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
(31)
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
(32)
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

(33)
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । 
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 

(34)
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 

(35)
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 

(36)
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । 
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 

(37)
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 
  
(38)
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । 
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 

(39)
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 

(40)
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । 
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥

(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(47)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर 
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो
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आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी
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चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी

कबीर दोहा   – कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह | देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ||
हिन्दी अर्थ   – जब तक यह देह है तब तक तू कुछ न कुछ देता रह | जब देह धूल में मिल जायगी, तब कौन कहेगा कि ‘दो’|

दोहा   – या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत | गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ||
अर्थ   – इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो | सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं |
कबीर दोहा  – ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय | औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
हिन्दी अर्थ  – मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो |
दोहा   – गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह | आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ||
अर्थ   – जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा | नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो |
दोहा   –  धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर | अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ||
अर्थ    – धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं | धर्म करके स्वयं देख लो |
दोहा  – कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय | साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय |
अर्थ   – उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर | साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो |
Kabir Dohe  – कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत | साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत ||
Hindi Meaning   – गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो | क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’ ||
दोहा   – जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय | जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय ||
अर्थ   – ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा | अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो |
दोहा   – कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव | स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर  पूछै नाँव ||
अर्थ   – अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान  पर भी मत जाओ | क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे |
दोहा   – इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति | कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति ||
अर्थ   – उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए |
दोहा   – कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर | इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर ||
अर्थ   – सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का  दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया, तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया | अर्थात् तन-मन को वश में कर लिया |
दोहा   – गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै | कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे || कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै | गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै ||
अर्थ    – यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, ओ मिली हुई गली भारी ज्ञान है | सहन करने से करोड़ों काम (संसार में) सुधर जाते हैं, और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है | यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है ? 
दोहा    – गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच | हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ||
अर्थ    – गाली से झगड़ा सन्ताप एवं मरने मारने तक की बात आ जाती है | इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह सन्त है, और (गाली गलौच एवं झगड़े में) जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है |
दोहा    – बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर | कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और ||
अर्थ    – बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो | यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो |
दोहा   – बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार | औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार ||
अर्थ    – हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है | इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा |
दोहा   – बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच | बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच ||
अर्थ    – हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बारम्बार तेरे से कहता हूं, जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है, वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा |
दोहा   – मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय | है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय ||
अर्थ   – मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा (बहुत सौदा) जाकर लाद लिया | भोगों-एश्वर्यों में लाभ है-लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है |
दोहा – बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश | खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश |
अर्थ – सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है |  इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है |
दोहा – जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश | तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश |
अर्थ – शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मार जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा | जिसे अपने तन मन की की ही सुधि – बूधी नहीं हैं, उसको क्या उपदेश किया?
दोहा – जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर | जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर |
अर्थ – जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है | हे कल्याण इच्छुक ! तू उसमें मत बंध | नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है, वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर – शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं | बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे.
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो.
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है.
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता.
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

New Kabir Ke Dohe Added

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन.
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन.
अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है. 
              कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई.
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई.
अर्थ :कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
           जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई.
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई.
अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो  गुण की कीमत होती है. पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है.
                                                      कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस.                                                    
 ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस. 

अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है. मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले.
                       पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात.
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात.
अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.
                                   हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास.
            सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास.
अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं. सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है. —
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा.
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
 खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद.
अर्थ : कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है.
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस.
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस.
अर्थ : कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न  मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता.  —
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
 चन्दन भुवंगा बैठिया,  तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता. चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता.
 कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ.
 जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ.
अर्थ :कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है.
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई.
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ.
अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं.
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय.
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय.
अर्थ : कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए. सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.
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माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर.
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर .
अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन. शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं.
  
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई.
 पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई.
अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा.
 
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||
अर्थ : जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया  – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया.
 
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
अर्थ : कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो.सजग होकर प्रभु का ध्यान करो.वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
 
आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||
अर्थ : देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं.
 
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥
अर्थ : रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥

अर्थ: खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं.  
दोहा   – या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत | गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ||
अर्थ   – इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो | सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं |
कबीर दोहा  – ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय | औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
हिन्दी अर्थ  – मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो |
दोहा   – गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह | आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ||
अर्थ   – जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा | नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो |
दोहा   –  धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर | अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ||
अर्थ    – धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं | धर्म करके स्वयं देख लो |
दोहा  – कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय | साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय |
अर्थ   – उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर | साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो |
Kabir Dohe  – कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत | साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत ||
Hindi Meaning   – गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो | क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’ ||
दोहा   – जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय | जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय ||
अर्थ   – ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा | अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो |
दोहा   – कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव | स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर  पूछै नाँव ||
अर्थ   – अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान  पर भी मत जाओ | क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे |
दोहा   – इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति | कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति ||
अर्थ   – उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए |
दोहा   – कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर | इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर ||
अर्थ   – सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का  दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया, तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया | अर्थात् तन-मन को वश में कर लिया |
दोहा   – गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै | कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे || कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै | गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै ||
अर्थ    – यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, ओ मिली हुई गली भारी ज्ञान है | सहन करने से करोड़ों काम (संसार में) सुधर जाते हैं, और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है | यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है ?
Newly Added Kabir Ke Dohe :-
दोहा    – गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच | हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ||
अर्थ    – गाली से झगड़ा सन्ताप एवं मरने मारने तक की बात आ जाती है | इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह सन्त है, और (गाली गलौच एवं झगड़े में) जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है |
दोहा    – बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर | कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और ||
अर्थ    – बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो | यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो |
दोहा   – बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार | औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार ||
अर्थ    – हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है | इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा |
दोहा   – बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच | बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच ||
अर्थ    – हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बारम्बार तेरे से कहता हूं, जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है, वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा |
दोहा   – मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय | है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय ||
अर्थ   – मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा (बहुत सौदा) जाकर लाद लिया | भोगों-एश्वर्यों में लाभ है-लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है |
दोहा – बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश | खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश |
अर्थ – सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है |  इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है |
दोहा – जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश | तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश |
अर्थ – शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मार जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा | जिसे अपने तन मन की की ही सुधि – बूधी नहीं हैं, उसको क्या उपदेश किया?

दोहा – जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर | जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर |
अर्थ – जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है | हे कल्याण इच्छुक ! तू उसमें मत बंध | नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है, वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर – शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीड गहरी होय ॥
One should not abuse a blade of grass under one's feet. If that happens to strike on one's eye then there will be terrific pain


दोहा:- हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मरे, मरम न जाना कोई।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि हिन्दुओं को राम प्यारा है और मुसलमानों (तुर्क) को रहमान| इसी बात पर वे आपस में झगड़ते रहते है लेकिन सच्चाई को नहीं जान पाते |
दोहा:- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
     पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब |
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो| जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे|

दोहा:- धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
     माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय|
अर्थ:- कबीर दास जी कहते है कि हमेशा धैर्य से काम लेना चाहिए| अगर माली एक दिन में सौ घड़े भी सींच लेगा तो भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेंगे|
दोहा:- निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय
     बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय|
अर्थ:- कबीर जी कहते है कि निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति बिना पानी और साबुन के हमारे स्वभाव को स्वच्छ कर देते है|
दोहा:- माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख|
अर्थ:- कबीरदास जी कहते कि माँगना मरने के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो|
दोहा:- साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
     मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय|
अर्थ:- कबीर दास जी कहते कि हे परमात्मा तुम मुझे केवल इतना दो कि जिसमे मेरे गुजरा चल जाये| मैं भी भूखा न रहूँ और अतिथि भी भूखे वापस न जाए|

दोहा:- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय
     जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय|
अर्थ:- कबीर कहते कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रार्थना करते है| अगर सुख में भगवान को याद किया जाये तो दुःख क्यों होगा|

दोहा:- तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते है कभी भी पैर में आने वाले तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकिं अगर वही तिनका आँख में चला जाए तो बहुत पीड़ा होगी|
दोहा:- साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
     धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता और कभी भी धन का भूखा नहीं होता| और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता|
दोहा:- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ:- कबीर जी कहते है कि कुछ लोग वर्षों तक हाथ में लेकर माला फेरते है लेकिन उनका मन नहीं बदलता अर्थात् उनका मन सत्य और प्रेम की ओर नहीं जाता| ऐसे व्यक्तियों को माला छोड़कर अपने मन को बदलना चाहिए और सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहिए|
दोहा:- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते है अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता| अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है|
दोहा:- जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय
     जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते है कि हम जैसा भोजन करते है वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते है वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है|
दोहा:- कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार
     साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।
अर्थ:- बुरे वचन विष के समान होते है और अच्छे वचन अमृत के समान लगते है|

दोहा:- जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
     मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ|
अर्थ:- जो जितनी मेहनत करता है उसे उसका उतना फल अवश्य मिलता है| गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ ले कर ही आता है, लेकिन जो डूबने के डर से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं वे कुछ नहीं कर पाते हैं|
ट का परदा खोल कर, सन्मुख दे दीदार |
बाल स्नेही साईंयां, आवे अंत का यार ||
He opens the veil within your being and shows himself  in front of you!! HE only is our true friend. At the time of our birth (here it refers spiritual birth or the moment when this creation came in existence and we as separate being came into picture) he was the only friend and when the journey of the soul has come to an end, I see him only as true friend. he has been our friend throughout our all lives, only it took whole journey from the origin to coming down this material world and going back to our source to make us realize this truth!!

हद में चले सो मानव, बेहद चले सो साध |
हद बेहद दोनों तजे, ताको बता अगाध ||
The one who is confined in limitations is human, the one who roams into unlimited, is a Sadhu. The one who has dropped both limited and unlimited, unfathomable is his being and understanding.

जाप मरे, अजापा मरे, अनहद हू मरी जाय |
राम स्नेही ना मरे, कहे कबीर समझाय ||
The nector of love makes us immortal.

जिस मरने से जग डरे, मेरे मन में आनंद |
कब मरू कब पाऊ, पूरण परमानन्द ||
The whole world fears death, but death will be full of bliss for me. I am waiting for death which will merge me, into absolute bliss.

चली जो पुतली लौन की, थाह सिंधु का लेन |
आपहू गली पानी भई, उलटी काहे को बैन ||
God is like an ocean. When seeker wants to find his depth and enters into the region of god, he himself merges into god. Thus duality, which is necessay to give report, does not exist.

नैनो की कारी कोठारी, पुतली पलंग बिछाई |
पलकों की चिक डारिके, पिया को लिया रिझाई ||
I made my eyes into a bridal room, and the pupils into a bridal bed. I pulled down curtains of the eyelids and pleased my beloved.

नींद निशानी मौत की, ऊठ कबीरा जाग |
और रसायन छोड़ के, नाम रसायन लाग ||
A state of being asleep is at par with the state of being dead. Therefore Kabir should get up. He should shun everything else and remember the God.

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट |
पाछे पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट ||
You have the access to the name of Ram without any cost. Why don’t you have access to it as much as you can. Otherwise at the last moment of your life you will feel sorry.

जैसी भक्ति करे सभी, वैसे पूजा होये |
भय पारस  है जीव को, निर्भय होय ना कोये ||
Your mind should have devotion to come out of the loop of fear.

कबीरा यह संसार है, जैसा सेमल फूल |
दिन दस  के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ||
This world is like a flower that traps a bee. Dont get overwhelmed by what you experience for a while.

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूर ही से दर्शाय |
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनी ना जाय ||
The palace of devotion has a very great height. This one can observe from a distance. Whoever is engaged in devotion, words fall short for describing his beauty.

दास कहावन कठिन है, में दासन का दास |
अब तो ऐसा होए रहू, पाँव तले की घास ||
It is difficult to serve others. I am serving those who are serving others. Now I long to become like a grass under the feet of people.

कहता हूँ कही जात हूँ, कहत बजाये ढोल |
स्वसा ख़ाली जात है, तीन लोक का मोल ||
Dont say that you belong to a very prominent caste. This is nothing for which you should beat drums. You are wasting your breaths and standing separated from the eternal spirit.

सतगुरु मिला तो सब मिले, ना तो मिला न कोय |
मात पिता सूत बान्धवा, यह तो घर घर होय ||
If someone is able to have a privilege of being in the company of a good preceptor then he has the privilege of being in the company of all. Otherwise he does not understand any relation. The relatives like mother, father, son and brother are there in all families.

कबीरा सीप समुंदर की, खरा जल नाही ले |
पानी पिए स्वाति का, शोभा सागर दे ||
A shell in the ocean does not take any salty water from the ocean. It drinks the raindrops falling during the period of Swati Constellation and adds to the beauty of the ocean.

करता रहा सो क्यों रहा, अब करी क्यों पछताए |
बोये पेड़ बबूल का, अमुआ कहा से पाए ||
why were u doing what you were doing, now what the use of repenting you have sown seeds of Babool tree, don’t expect mangoes from that.

कोयला भी हो उजला, जरी पड़ी जो सेक |
मुर्ख होय ना उजला, जो काला का खेत ||
A coal becomes white when put on fire. A fool does not shun his foolishness after any treatment.

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि |
ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही |
A deer has the fragrance in itself and runs throughout the forest for finding it. Similarly Ram is everywhere but the world does not see.

नैना अंतर आव तू, नैन झापी तोही लेऊ |
न में देखू और को, न तोही देखन देऊ ||
O my beloved! Come into my eyes, I will take you in and close them. Then, neither will I see anyone else, nor will I allow anyone to see you.

राम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल |
कबीर पीवत दुर्लभ है, मांगे सीस कलाल ||
The very powerful drug of god is love, which is very sweet. But it is difficult to obtain, because the seller asks for your head as its price.

साधू शब्द समुंदर है, जा में रतन भराय |
मंद भाग मुट्ठी भरे, कंकर हाथ लगाय ||
A good person is an ocean of pearls. Those who are not intelligent end with handful of sand after meeting a good person.

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाही |
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाही ||
A good person wants that you should have faith in what he says. He is not after your money. He who roams for money is not a good person.

भेष देख ना पुजिये, पूछ लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होंत नाही, कंचन की पहचान ||
Don’t go after the outward appearance. See whether he has the right knowledge. A goldsmith cannot verify the purity of gold without putting it to test.

बूँद समानी है समुंदर में, जानत है सब कोई |
समुंदर समाना बूँद में, बुझे बिरला कोई ||
When a drop merges into the ocean, everyone understands it. But when the ocean merges into the drop, seldom does one understand it.

हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हेराय |
बूँद समानी समुंदर में, सो कत हेरी जाय ||
Kabir says- searching over and over, O my friend! I lost myself in Him (God) As the drop mixes with the ocean, where can one search for it.

तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ |
बारी फेरी बलि गई, जित देखू तित तू ||
The recitation of God’s name leads the devotee to God. He reaches the state of union with God, and his cycle of rebirths disappears, just as a drop of water mixes with the ocean and its separation disappears.

प्रेम गली अति संकरी, तामें दाऊ न समाई |
जब में था तब हरी नहीं, अब हरी है में नाहीं ||
To attain true love, one has to give up his ego. When the ego disappears, God appears. So the devotee must give up his ego to realize God.

प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई |
राजा प्रजा जिस रुचे, सीस देय ले जाई ||
In the region of love there is no difference between king and pauper. Who wants to get love has to give up his ego, all other wealth has no value in love. Love is a spiritual and not a material thing.

जिन ढूंढा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ |
में बोरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ ||
One who wants to get some pearls has to dive deeply into the ocean. The person who will fear drowning will not get anything. In the same way, he who wants God realization has to dive deeply in meditation, and merge completely into God’s love.

लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल |
लाली देखन में गयी, में भी हो गयी लाल ||
When a devotee realizes God, he sees illumination of God all over the world. He also merges into God’s love in such a way that all the differences between him and God disappears. He realizes (sees) only God and nothing else.

पावक रुपी साईंयां, सब घट रहा समाय |
चित चकमक लागे नाहि, ताते बुझी बुझी जाय ||
God is like fire dwelling in each and every heart. But because the flint stone does not spark in the heart, it does not give light.

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय |
ज्यों मेहंदी के पात में, लाली लखी न जाय ||
To get the red colour from the mehendi leaves one has to grind them into a fine paste and apply it on the hands. When the paste dries and the hands are washed, the red colour appears. In the same way one has to grind (cleanse) his mind by meditation to realize God.

घट घट साईंयां, सुनी सेज न कोय |
बलिहारी घट तासु की, जा घट परघट होय ||
Though the bliss of God’s love is in the human heart, because of ignorance, people do not know it, and they search for happiness in wordly things. Instead of bliss they get disappointment. One should realize that God is dwelling in evry heart. And service to humanity is service to God.

कबीरा गर्व न कीजिये, कबहू न हँसिये कोय |
अजहू नाव समुंदर में, न जाने क्या होय ||
Dont feel proud, dont mock at anybody. Your life is like a boat in the sea, who can say what may happen at any time.

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंधे मोहे |
एक दिन ऐसा आयेगा, में रोंधुगी तोहे ||
The earth says to the potter, “why are you trampling on me now?” One day will come when I will trample on you.

लिन आवत देख के, कलियन करे पुकार |
फूले फूले चुन लिए, काल हमारी बार ||
Every mature person knows that sooner or later everyone has to leave this world. So you must do good deeds so that you don’t have to lament later.

कलि काल ततकाल है, बुरा करो जिनी कोई |
अन बोवै लोहा दाहिने, बोवै सो लुनता होई ||
In this Iron Age you get quick results. Don’t do anything wrong. Whatever you sow, the same will reap.

व पलक की सुधि नाहि, करे काल को साज |
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज़ ||
We do not know what will happen in the next moment, but still we prepare for the distant future. Death will come suddenly just as hawks pounce upon birds.

काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करत |
ज्यों ज्यों नर निधड़क फिरे, त्यों त्यों काल हसत ||
The body is perishable like an unbaked clay pot, and the mind is restless. Still, man delays in worldly actions unmindful of fear, death looks at him and laughs.

बिन रखवारे बाहिरा, चिड़ियों खाया खेत |
अरधा परधा ऊबरे, चेति सके तो चेत ||
Without protection the grain of the farm is being eaten up by the birds. Still, a little bit is remaining. Protect it if you can.

आज कहे हरी कल भजुंगा, काल कहे फिर काल |
आज कालके करत ही, अवसर जासी चाल ||
Today you say that you will do devotion to God tomorrow, and tomorrow you will again say tomorrow. Saying tomorrow and tomorrow you lose the opportunity in this life.

मीठा सबसे बोलिए, सुख उपजे चाहू ओर |
वशीकरण यह मंत्र है, तजिये वचन कठोर ||
Speak sweetly and politely, you will make all happy. This is just like a charm, give up harsh words.

मधुर वचन है औषधि, कुटिल वचन है तीर |
श्रवन द्वार है संचरे, साले सकल सरीर ||
Sweet words are like medicine, harsh words are like arrows. Which enter through the doors of the ears, give distress to the whole body.

कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोई |
कथनी छोड़ी करनी करे, विष का अमृत होई ||
Speech is sweet like sugar, deeds are like poison. Instead of merely speaking sweet we must do must do good deeds, the poison will turn into nector.

कबीर सब जग निर्धन, धनवंता नाहि कोय |
धनवंता सोई जानिए, राम नाम धन होय ||
Kabir says “the whole world is poor, no one is truly rich. ”Who has the wealth of God’s name is truly rich.

खा सुखा खाई के, ठंडा पानी पी |
देख पराई चुपड़ी, मत ललचाओ जी ||
Eat simple food and drink cold water. Do not look at the buttered bread of others and long for it.

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |
बिन पानी बिन साबुन, निर्मल करे सुभाव ||
Keep your critic close, you get to know your faults if someone criticizes you, and you have a chance to correct them. Give your critics shelter in your courtyard and listen to the criticism without annoyance, because critic is not your enemy, he is helping you to clean the rubbish from your life without soap and water.

आपा तजे हरी भजे, नख सिख तजे विकार |
सब जीवन से निर्भैर रहे, साधू मता है सार ||
Give up the pride of caste and clan and do devotion to the God. Give up your faults like lust, anger, and greed. Don’t be an enemy to anyone. This is the basic principle of the saints.

सीलवंत सबसे बड़ा, सब रतनो की खान |
तीन लोक की सम्पदा, रही सील में आन ||
Whoever has good character is the greatest of all. He is mine of all jewels. The wealth of the three worlds is merged in good character.

पखा पाखी के कारने, सब जग रहा भुलान |
निरपख होयके हरी भजे, सोई संत सुजान ||
People are divided into various religions and thus the whole world is misguided, being impartial to the worldly groups (religions), one who performs the devotion to Almighty God is the true saint. A saint understands that all souls are the same, and that God is dwelling in every heart. The saint recognises God in all, and remains impartial to the various religions.

एक शब्द गुरुदेव का, ताका अनंत विचार |
थके मुनि जन पंडिता, वेद न पावे पार ||
The one word of Sat Guru gives limitless meanings.only a humble devotee can get it, Munis and pandits (full of ego of their knowledge) became exhausted trying to find its meaning. Vedas cannot fathom its depth.

गुरु बिचारा क्या करे, सिक्खहि माहिं चूक |
भावे त्यों परबोधिये, बांस बजाये फूँक ||
What can the poor Guru does if the disciple has faults? The Guru can only guide, but the disciple has to walk. Guru gives knowledge but it becomes useless, just as a broken flute does not produce music. The disciple must have.

हरी कृपा तब जानिए, दे मानव अवतार |
गुरु कृपा तब जानिए, मुक्त करे संसार ||
We must thank God for giving us human life, but it is the grace of the Guru which liberates us from the cycle of birth and death.

तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान |
सुमति गयी अति लोभाते, भक्ति गयी अभिमान ||
Darkness disappears when the sun arises and ignorance goes away by the Guru’s wisdom (gyan). Wisdom is lost because of greed, and devotion is lost because of ego.

केसों कहा बिगडिया, जे मुंडे सौ बार
मन को काहे न मूंडिये, जा में विशे विकार
What harm have the hair done, you shave them hundred times. Why not shave the mind, there grow unchecked countless poisonous thoughts.

गुरु को कीजै बंदगी, कोटि कोटि परनाम |
कीट न जाने भृंग को , गुरु करले आप सामान ||
One has to offer salutations and obeisance to Guru who takes the disciple on the path to God, and helps him in every way even though the disciple does not know it, just as a wasp takes a worm into its nest and another wasp emerges. The Guru imparts wisdom to him and makes the ordinary disciple as himself.

मूंड मुंडावत दिन गए, अजहूँ न मिलया राम |
राम नाम कहू क्या करे, जे मन के औरे काम ||
Ages have passed shaving the head, yet union with Ram is not here. Recitation of Ram Naam is futile, when mind is engaged elsewhere.

कबीरा माला काठ की, कहि समझावे तोही |
मन न फिरावे आपना, कहा फिरावे मोहि ||
Kabir, the rosary made of wooden beads explicitly proceeds to educate. (If) you set not your mind in (a focused) motion, (then) to what end you rotate.

माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहि |
मनुआ तो चहुं दिश फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ||
The rosary rotating by the hand (or) the tongue twisting in the mouth, With the mind wandering everywhere, this isn’t meditation (Oh uncouth!).

कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहि |
सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर माहि ||
Kabir, this is the abode of love, Not the house of an aunt. Only that one can enter here who has relinquished all pride.

एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी |
है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर विचारी ||
If I say one, It is not, if I say two, it will be a violation. Let ‘It’ be what ‘It’ is, says Kabir upon contemplation.

आशा जीवे जग मरे, लोग मरे मरी जाई |
सोई सूबे धन संचते, सो ऊबरे जे खाई ||
Hope lives in a dying world, people die and die again. Perish yet hoarding wealth, spend and freedom attain.

आग जो लगी समुंदर में, धुंआ न परगट होए |
सो जाने जो जरमुआ जाकी लगी होए ||
With the ocean set ablaze, the smoke yet manifests not. Only the one who gets burnt, envisions the heat of loving thought.

जब तू आया जगत में, लोग हँसे तू रोय |
ऐसी करनी ना करी, पाछे हँसे सब कोय ||
When you were born in this world, Everyone laughed while you cried. Did not conduct yourself in manner such that they laugh when you are gone.

ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं |
मूरख लोग न जानहिं, बाहिर ढूढ़न जाहिं ||
Like the pupil in the eyes, the Lord resides inside. Ignorant do not know this fact, they search Him outside.

कबीरा किया कुछ ना होत है, अनकिया सब होय |
जो किया कुछ होत है, करता और कोय ||
Kabir says “By my doing nothing happens, what I don’t does come to pass.” If anything happens as if my doing, then truly it is done by someone else.

कबीरा गर्व ना कीजिये, ऊंचा देख आवास |
काल पड़ो भू लेटना, ऊपर जमसी घास ||
Kabir says “Don’t be so proud and vain, looking at your high mansion.” Death makes one lie on bare land, and grass will grow thereon.

चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए |
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए ||
Worry is the bandit that eats into one’s heart. What the doctor can do, what remedy to impart?

अकथ कहानी प्रेम की, कुछ कही न जाए |
गूंगे केरी सरकारा, बैठे मुस्काए ||
Inexpressible is the story of Love, It cannot be revealed by words. Like the dumb eating sweet-meat, only smiles, the sweetness he cannot tell.

जीवत समझे जीवत बुझे, जीवत ही करो आस |
जीवत करम की फाँसी न कटे, मुए मुक्ति की आस ||
Alive one sees, alive one knows, thus crave for salvation when full of life. Alive you did not cut the noose of binding actions, hoping liberation with death.

कबीर सोई सूरमा, मन सूं मांडे झूझ |
पंच पयादा पाडी ले, दूर करे सब दूज ||
O Kabir, he alone the warrior, who takes on the “mind” head on Crushing the shield of the sensual five, all duality is gone.

कबीर सूता क्या करे, कूड़े काज निवार |
जिस पंथ तू चलना, सोय पंथ सवार ||
Arise from stagnation O Kabir, divert yourself of the rubbish deeds. Be focused and illumine the path on which you were meant to tread.

गुरु धोबी सिख कपडा, साबू सिरजन हार |
सुरती सिला पर धोइए, निकसे ज्योति अपार ||
Guru the washerman disciple is the cloth, God himself is the soap. Wash the mind on foundation firm, to realize the glow of Truth.

जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग |
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग ||
Like seed contains the oil, fire in flint stone. Your temple seats the Divine, realize if you can.

बोली तो अनमोल है, जो कोई जाने बोल |
हृदय तराजू तोल के, तब मुख बहार खोल ||
Words are indeed priceless, if one knows what to say. Says Kabir, weigh inside all that you wish to convey.

कबीरा तहां न जाइये, जहा कपट का हेत |
जालू कली अनार की, तन रीतो मन सेत ||
Says kabir, do not go there, where people are not frank. Like the pomegranate bud, colourful but inside dark.

लघुता में प्रभुता बसे,प्रभुता ते प्रभु दूर |
चींटी  ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर ||
You gain in power by becoming humble. Little ants move with sugar in mouth, mighty elephants in dust bath foul.

अन्मंगा उत्तम कहा, मद्यम मांगी जो लेय |
कहे कबीर निकृष्ट, सो पर धरना देय ||
The best is not to beg at all, middling who collects his needs. Says Kabir, the worst is he who demands and tight sits.

सज्जन जन वही है जो, ढाल सरीखा होए |
दुःख में आगे रहे, सुख में पाछे होए ||
Noble man is like the shield, comes forward in distress. Remains quite far behind in peace and happiness.

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये |
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ||
Says Kabir, “when I was born( I cried ) all laughed in happiness. Let me do such deeds that when I will die, I will laugh and others cry in distress.

आछे दिन पाछे गए, हरी से किया हेत |
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गयी खेत ||
O dear soul! Your good days are passed away when you had energy and time to do love and devotion to God. You didn’t do it at that time, what is the use of regretting now.

आवत गारी एक है, उलटत होत अनेक |
कहे कबीर न उलटिए, बनी एक को एक ||
A verbal abuse is one, but responding to it will make many; Kabir says: “Do not respond to the abuse and it will remain one.

कबीरा कहे काहे को डरे, सर पर सिरजन हार |
हस्ती चढ़ी न डरिये, कुतिया भोंके हज़ार ||
Why should Kabir be afraid for, god is above all? On elephant’s back is any afraid, if dogs howl from below.

जो तोको कांटा बुवै, ताहि तू बुवै फूल |
तो को फूल को फूल है , काँटा को तिरसूल ||
Who pricks you with nail, you prick him with flower. You will get back flower for flower, he a trident for nail, be sure.

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय |
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय ||
Do not oppress the poor and weak, think not they are helpless. Remember, the breath of the lifeless blower can burn steel to ashes.

कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर |
पाछे लागा हरी फिरे, कहत “कबीर, कबीर” ||
Says Kabir, I have made my mind pure like holy Ganges water. Now God running after me calling “Kabir Kabir”

कबीरा तेरी झोपडी, गल कटीयन के पास |
जैसी करनी वैसे भरनी, तू क्यों भया उदास ||
O Kabir! Your hut is next to the butcher’s bay. Why do you feel down? For their conduct they only shall pay.

मांगन मरण सामान है, मत मांगे कोई भीख |
मांगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ||
Begging is like dying, Let no one Beg. It is better to die than beg, this is the SatGuru’s message.

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे ना कोय |
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख कहे को होय ||
In anguish everyone prays to Him, in joy does none? To one who prays in happiness, how can sorrow come.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ||
In vain is the eminence, just like a date tree. No shade for travelers, fruit is hard to reach.

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय |
माली सीचे सों घड़ा, ऋतू आये फल होय ||
Slowly slowly O mind, everything in own pace happens. Gardner may water a hundred buckets, fruit arrives only in its season.

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय |
में भी भूका ना रहू, साधू न भूखा जाय ||
Give so much O God, suffice to envelop my clan. I should not suffer cravings, nor does the visitor go unfed.

सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय
सात समुंदर की मसि करूँ, गुरुगुण लिखा न जाय
Even if the whole earth is transformed into paper with all the big trees made into pens and if the entire water in the seven oceans are transformed into writing ink, even then the glories of the Guru cannot be written. So much is the greatness of the Guru.

कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूं होए |
सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न देख्या कोए ||
Kabir, save the wealth that ‘remains’ in the moment ultimate. Departing with a crown of material wealth, none has crossed the gate.

कागा काको धन हरे, कोयल काको देत |
मीठे शब्द सुनायके, जग अपनों कर लेत ||
Crow does not steal anything, koyal (cuckoo) does not make a gift. For its sweet songs cuckoo wins love of all. It is by one’s nature and habit that he be friends others.

एक दिन ऐसा होयेगा, सब सो परे बिछोहू |
राजा रानी राव रंक, सावध क्यों नाहि होहु ||
A day will come when you will be separated from everything. Whether you are a king, landlord or pauper, why are you not awakening?

आये है तो जायेंगे, राजा रंक फकीर |
एक सिंहासन चड़ी चले, एक बांधे जंजीर ||
Who has come will go, wheather he is a king or fakir (pauper). One goes sitting on a throne and another goes tied in chains.

दुर्लभ मानुस जनम है, मिले न बारम्बार |
तरुवर जो पत्ती झडे, बहुरि ना लागे डार ||
Human birth is difficult to obtain, you will not get it again and again. Just as a ripened fallen fruit, does not reattach to the branch.

गुरु बिन ज्ञान न ऊपजे, गुरु बिन मिले न मोक्ष |
गुरु बिन लिखे न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ||
Without the Guru no one obtains spiritual knowledge or achieves salvation. Without the Guru no one can see Truth or have his doubts removed.

जब में था तब हरी नहीं, अब हरी है में नाहि |
सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक देखया माहि ||
When “I” was then Hari was not, Now Hari “is” and “I” am not. All the darkness (illusions) dissolved, When I saw the light (illumination) within.

चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोये |
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए ||
Looking at the grinding stones, Kabir laments. In the duel of wheels, nothing stays intact.

खोद्खाद धरती सहे, काटकूट बनराय |
कुटिल वचन साधू  सहे, और से सहा न जाय ||
The earth bears the digging. The forest bears the axe. The noble bears the harsh words. Others cannot bear the odds.

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोह |
तेरा तुझको सौपता, क्या लागे है मोह ||
Nothing mine belongs to me, all that is yours. To give all that to you, what’s there for my remorse?

बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलया कोए |
जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा ना कोए ||
I searched for the crooked, met not a single one. When searched myself, “I” found the crooked one.

माया मरी ना मन मारा, मर मर गए शरीर |
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ||
Neither illusion nor the mind, only body attained death. Hope and delusion did not die, so said Kabir.

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए |
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए ||
Reading books everyone died, no one became any wise. One who reads the words of love, only became wise.

कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर |
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ||
Kabira in the market place, wishes welfare for all. Neither friendship nor enmity with anyone at all.

माला फेरत जुग भया, फिरा ना मन का फेर |
कर का मनका ढार दे, मन का मनका फेर  ||
Eons have passed whirling rosary, restless remains the mind. Give up the beads of rosary, and rotate the beads of mind.

कबीरा गर्व ना कीजिये, काल गहे कर केश |
ना जाने कित मारे है, क्या घर क्या परदेश  ||
Kabir says don’t be so proud and vain, the clutches of time are dark. Who knows where shall it kill, whether at home or abroad?

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब |
पल में पर्लय होएगी, बहुरि करेगा कब ||
Tomorrow’s work do today, today’s work now. If the moment is lost, the work be done how.

गुरु गोविन्द दोहु खड़े, काके लांगू पाँय |
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताये ||
Guru and god both are here to whom I should first bestow. All glory be unto the guru path to god who did bestow.

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ||

Speak in words so sweet that fill the heart with joy. Like a cool breeze in summer, for others and self to enjoy.




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